इक बार तो दिखा दो, आक़ा ! मुझे मदीना
बेशक बना लो, आक़ा ! मेहमान दो घड़ी का
मेरे आक़ा ! मदीने में मुझे भी अब बुला लीजे
तरसती हैं मेरी आँखें, मुझे रौज़ा दिखा दीजे
मेरे आक़ा ! मदीने में मुझे भी अब बुला लीजे
महकती हैं वो राहें, जिन से, आक़ा ! आप हैं गुज़रे
मुझे भी उन गली कूचों में रहने की जगह दीजे
मेरे आक़ा ! मदीने में मुझे भी अब बुला लीजे
लड़ी साँसों की ये, आक़ा ! न जाने कब बिखर जाए
बुला लीजे मदीने और क़दमों में बसा दीजे
मेरे आक़ा ! मदीने में मुझे भी अब बुला लीजे
दुखों ने घेर रखा है, ग़मों की धुप है सर पर
ठिकाना गुम्बद-ए-ख़ज़रा के साए में ‘अता कीजे
मेरे आक़ा ! मदीने में मुझे भी अब बुला लीजे
मवाजा सामने हो जिस घड़ी, ये दम निकल जाए
बक़ी-‘ए-पाक ही, आक़ा ! मेरा मदफ़न बना दीजे
मेरे आक़ा ! मदीने में मुझे भी अब बुला लीजे
‘अक़ीदत से बिना ना’लैन जिस दर सय्यिदा आईं
मुझे भी सय्यिदु-श्शोह्दा की वो चौखट दिखा दीजे
मेरे आक़ा ! मदीने में मुझे भी अब बुला लीजे
कभी मैं जालियाँ थामूँ, बसा कर पंज-तन दिल में
‘अली-ओ-फ़ातिमा, हसनैन का सदक़ा ‘अता कीजे
मेरे आक़ा ! मदीने में मुझे भी अब बुला लीजे
सितारों कहकशाँओं से मदीने की ग़ुबार अच्छी
मुयस्सर हो अगर, कातिब ! तो आँखों से लगा लीजे
मेरे आक़ा ! मदीने में मुझे भी अब बुला लीजे